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पहले के वक़्त दुश्मन क़ौमों को तबाह करने का सीधा सा फार्मूला होता था, यानी उनपर हमला करके अशराफ़िया के मर्दों को क़त्ल कर देना, उनके बच्चों व औरतों को ग़ुलाम बना लेना और सारा माल व जायदाद लूट लेना। फिर उनके मज़हब को ख़त्म करने के लिए इबादतख़ानों को तोड़ा जाता, आम लोगों को ज़बर्दस्ती कन्वर्ट किया जाता था।

पहले के वक़्त दुश्मन क़ौमों को तबाह करने का सीधा सा फार्मूला होता था, यानी उनपर हमला करके अशराफ़िया के मर्दों को क़त्ल कर देना, उनके बच्चों व औरतों को ग़ुलाम बना लेना और सारा माल व जायदाद लूट लेना। फिर उनके मज़हब को ख़त्म करने के लिए इबादतख़ानों को तोड़ा जाता, आम लोगों को ज़बर्दस्ती कन्वर्ट किया जाता था।
  
लेकिन आज तरीक़ा बदल चुका है। अब जिस्म नहीं बल्कि ज़ेह्न फ़तह करने का ज़माना है। मुख़ालिफ़ क़ौम के लोगों के ज़ेह्न फ़तह करके ख़ूद उन्हीं के हाथों अपने क़ौम व दीन को तबाही के दहाने पर पहुंचाया जाता है। अफ़सोस के साथ इस साइकॉलॉजिकल वार में मुसलमान बुरी तरह नाकाम हो चुके हैं। 
किसी समाज का सबसे अहम मगर सबसे sensitive/कमज़ोर पहलू उसकी औरतें होती हैं। लिहाज़ा बातिल क़ुव्वतों ने सबसे ज़्यादा इसी पहलू पर फोकस किया है, मुस्लिम लड़कियों की तालीम व आज़ादी के लिए इनकी फ़िक्रमंदी देखकर आप हैरान रह जायेंगे। इस गर्ज़ से उन्होंने बहुत सी चालें चली हैं। मसलन.....
 
वे उकसाने के लिए हमें ताने मारते रहे हैं - "मुसलमान अपनी औरतों को सात पर्दों में रखते हैं, घर की चारदीवारी में क़ैद रखते हैं, उन्हें आज़ादी नहीं देते, पढ़ाते लिखाते नहीं, घर में दासी बनाकर रखते हैं।"
  
इसपर एहसासे कमतरी का शिकार होकर उनको ग़लत साबित करने की जुस्तजू में हमने पर्दे का पूरा कांसेप्ट ही बदलकर रख दिया, उन्हें दिखाया कि हिजाब/नक़ाब में औरत और भी ज़्यादा हॉट और ख़ूबसूरत दिखती है, हिजाब औरतों की ख़ूबसूरती को बढ़ाता है। इस तरह फैंसी (बेहूदे) हिजाब की इस क़दर डिमांड बढ़ गई कि आज यह एक बड़ी इंडस्ट्री बन चुका है।
हमने उन्हें सफ़ाई दी कि हिजाब/नक़ाब पहनकर औरत तालीम हासिल कर सकती है, इंजीनियर, इकॉनमिस्ट, डॉक्टर, फैशन डिजाइनर, प्रोफेसर बन सकती है, पार्टी, फंक्शन्स, कल्चरल इवेंट्स में खुलकर भाग ले सकती है, मर्दों के कंधे से कंधा मिलाकर तालीम हासिल कर सकती है, जॉब व बिज़नेस कर सकती है... सैयदा ख़दीजा एक बिज़नेस वुमन थीं, सैयदा आयशा टीचर थीं जो मर्दों को भी पढ़ाया करती थीं, सैयदा आयशा आर्मी कमांडर-इन-चीफ़ थीं, सहाबियात जंगों में मर्दों के साथ जातीं व जख़्मी ग़ैरमहरम मर्दों की मरहम पट्टी करतीं और मर्दों के साथ शाना बशाना जंग भी करती थीं....वग़ैरह वग़ैरह।
  
यानी हमने उनका फेंका दाना चुग लिया और अपनी लड़कियों को दीनी तालीम व मोबाइल के साथ हिजाब/नक़ाब पहनाकर सेक्युलर तालीम व जॉब के लिए बातिली इदारों के हवाले कर दिया। अहमक़ यह समझ बैठे कि दीनी तालीम व पर्दा लड़की की फ़ित्नों से हिफ़ाज़त करेगा और वह बातिल के यहां से सिर्फ़ ख़ैर (यानी रुपया पैसा,स्किल्स) लेकर आयेगी। इस तरह लड़कियों में पर्दे व दीनी तालीम का ज़बर्दस्त क्रेज़ बढ़ा तो दूसरी तरफ दुन्यवी तालीम व जॉब का भी....। इस अजीब आमेज़िश का नतीज़ा हम खुली आंखों से देख रहे हैं। हिजाब नक़ाब नमाज़ रोज़ा करने वालियां, ख़ूद को प्राउड मुस्लिमा कहने वालियां भी कट्टर H ब्वायफ्रेंड्स को पूरी इस्लामी पहचान में डेट कर रही हैं, कई-कई ग़ैर-मुस्लिम मर्दों के साथ अय्याशियां करते पकड़ी जा रही हैं। इस्लामी पहचान में होली, दिवाली, क्रिसमस सबकुछ मनाती देखी जा रही हैं। यह सब दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। ग़य्यूर व बा'ईमान मुस्लिम मर्द यह सब देख-देखकर शदीद सदमें की कैफ़ियत में हैं। इस फ़ित्ने पर लगाम न लगाई गई तो मुस्तक़्बिल में हर दूसरे घर की यही कहानी होगी, मुस्लिम मर्द बुरी तरह de-moralized होकर टूट जायेंगे और इस तरह हमारा वजूद व तशख़्ख़ुस ख़तरे में पड़ जायेगा।

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