जाति गणना का अस्त्र
यूं तो गाहे-बगाहे विभिन्न राजनीतिक दल देश में जाति आधारित जनगणना की मांग करते रहे हैं। पहले इस मुहिम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अगुवाई की। फिर राजद व द्रुमुक के अलावा कई राज्यों ने भी ऐसी मांग दोहराई। लेकिन अब अपने परंपरागत स्टैंड से इतर कांग्रेस ने जाति आधारित जनगणना की मांग उठाकर सब को चौंकाया है। निस्संदेह, यह कहना कठिन है कि यह मुद्दा कितना सामाजिक सरोकारों व वंचित समाज के उत्थान से जुड़ा है, लेकिन एक बात तो साफ है यह मामला सिर्फ कर्नाटक चुनाव तक ही सीमित रहने वाला नहीं है। बल्कि आसन्न आम चुनाव तक विपक्ष को एकजुट करने के लिये एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया जाने वाला है। यदि अतीत के पन्नों को पलटें तो जब कमंडल मुद्दा भाजपा के जनाधार को एकजुट करने का मंत्र बना तो मंडल का मुद्दा उभारा गया था। कमोबेश वही स्थितियां दोबारा दुहराई जा रही हैं। लगातार दो बार से केंद्र की सत्ता में काबिज मोदी सरकार को चुनौती देने के लिये विपक्षी एकता की जो इबारत लिखी जा रही है, उसके मूल में जाति गणना का मुद्दा सामने आया है। कर्नाटक के कोलार में गत रविवार हुई एक जनसभा में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जाति गणना का मुद्दा उठाया था। जाहिर है यह बात उन्होंने पार्टी के थिंक टैंक की रीति-नीति के अनुरूप ही कही होगी। इसी कड़ी का दूसरा पहलू यह भी है कि इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर जाति आधारित जनगणना करवाने पर जोर दिया है। कहीं न कहीं राहुल गांधी के मानहानि प्रकरण को भाजपा द्वारा पिछड़ों के अपमान के मुद्दे में तब्दील करने के बाद भी कांग्रेस डेमेज कंट्रोल में जुटी नजर आती है और भाजपा के अस्त्र से ही पलटवार करने का मन बना चुकी है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस का यह स्टैंड विपक्षी एकता की कवायदों के बीच साझे मुद्दे के रूप में उछालने का भी है।
बहरहाल, पलटवार करते हुए कांग्रेस नेतृत्व दलील दे रहा है कि भाजपा को यदि अन्य पिछड़ा वर्ग की इतनी चिंता है तो वर्ष 2011 में हुई जाति जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करे।
जातिगत जनगणना भले ही नैतिक रूप से त्रुटिपूर्ण हो, कोटा लाभों को लक्षित करने में मदद कर सकती है
जातिगत जनगणना की मांग करने वालों में कांग्रेस पार्टी के शामिल होने के साथ इस कवायद पर राजनीतिक विपक्ष के बीच एक सहमति उभरती हुई दिखाई दे रही है। उत्तर भारत में आरक्षण के लिए प्रतिबद्ध पार्टियों - विशेष रूप से सपा और राजद - ने अगड़ी जातियों के बीच आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण लाभ के विस्तार की प्रतिक्रिया के रूप में यह मांग की है, जिसकी कसौटी आय के मानदंड हैं। इसका समर्थन करने की दिशा में कांग्रेस का उद्देश्य अपने समर्थन आधार का विस्तार करना है। वर्ष 1980 की मंडल आयोग की रिपोर्ट, जो 1931 के जाति जनगणना के आंकड़ों पर आधारित थी, अभी भी पिछड़ेपन की पहचान करने और ओबीसी के लिए आरक्षण की सीमा निर्धारित करने का आधार बनी हुई है। ऐसे में एक व्यापक जनगणना मौजूदा आरक्षण कोटा के समर्थन में उसका मूल्यांकन करने या और मांगों का आकलन करने के लिए डेटा प्रदान कर सकती है। इस तरह की श्रमसाध्य कवायद एक कानूनी अनिवार्यता भी होगी, जिससे सरकार को मात्रात्मक डेटा के लिए सुप्रीम कोर्ट के आह्वान का जवाब देने की सुविधा मिल जाएगी। जातियों की गिनती हालांकि आसान नहीं है। सरकार ने 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना को जिस तरह वर्णित किया, उसमें एक अंतर्निहित कमजोरी स्पष्ट है: यह उन कमजोरियों से भरा हुआ है, जिसने एकत्र किए गए आंकड़ों को अनुपयोगी बना दिया। यहां 46 लाख विभिन्न जातियां, उप-जातियां, जाति / कबीले के उपनाम डेटा में दर्ज हैं। इन्हें उचित गणना के लिए उपयोग करने से पहले पर्याप्त छंटनी की आवश्यकता होगी। जनगणना आयुक्तों और रजिस्ट्रार जनरल के कार्यालय का सही उपयोग किए बिना सर्वेक्षण के जल्दबाजी में किए जाने ने भी इसे समस्याग्रस्त बना दिया है।
दलील यह भी कि वर्ष 2011 में जाति जनगणना का निर्णय संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुआ था। साथ ही यह भी कि तब कोशिश इसलिये सिरे नहीं चढ़ सकी थी कि क्रियान्वयन होने तक केंद्र में मोदी सरकार आ गई थी। जिसने इन आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया। जाहिर है इस मुद्दे पर पहले भी खूब राजनीति हुई और आगे भी होती रहेगी। कहना कठिन है कि कांग्रेस समेत विपक्ष का इस मुद्दे के प्रचार का मकसद वाकई पिछड़ों व वंचितों का कल्याण करना है या सिर्फ अपना जनाधार बढ़ाना। कुछ लोग कांग्रेस की नीति में आये बदलाव की वजह यह भी बताते हैं ताकि कांग्रेस यह दिखा सके कि मुद्दों के मामले में वह शेष विपक्ष के साथ खड़ी है। निस्संदेह, इस मुहिम के जोर पकड़ने से भाजपा की मुश्किलें बढ़ जायेंगी। दरअसल, भाजपा सिद्धांत रूप में जाति जनगणना के पक्ष में नहीं रही है। उसे मालूम है कि देश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल व जनता दल यूनाइटेड आदि के जनाधार का मुख्य आधार जातीय ध्रुवीकरण ही रहा है। जिसके चलते पिछड़े व वंचित वर्ग का कितना उत्थान हुआ ये कहना तो मुश्किल हैं, लेकिन इन दलों का परिवारवाद खूब फला-फूला है। लेकिन इतना तो तय है कि यह कवायद कालांतर आरक्षण के फार्मूले में बदलाव की मांग तक जायेगी। जातीय आधार पर गणना से सामने आने वाले आंकड़ों के जरिये विभिन्न जातियों के लिये नये सिरे से आरक्षण के निर्धारण की भी मांग उठेगी। उनकी सत्ता में भागीदारी बढ़ाने की भी बात कही जायेगी। लेकिन सवाल यह भी सामने आएगा कि 21वीं सदी में अमृतकाल से गुजरते देश में समतामूलक समाज के विकास का रास्ता क्या आरक्षण से होकर ही गुजरेगा? या फिर हाशिये पर गये लोगों के लिये आरक्षण को न्यायसंगत बनाने की भी पहल होगी। इस मुद्दे पर राजनीतिक चश्मे के बजाय राष्ट्रीय सरोकारों का भी ध्यान रखना होगा। यानी समतामूलक जातिविहीन समाज के विचार पर भी मंथन किया जायेगा।
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