मधु लिमये ईमानदार और नेक राजनेता
कुमार कृष्णन
बिहार का बांका और मुंगेर दो ऐसा जिला है, जो कभी संयुक्त समाजवादी पार्टी के नेता मधु लिमये जी की कर्मस्थली हुआ करता था। बिहार के सर्वाधिक गरीब व पिछड़े लोकसभा में से इन दोनों ही जिलों की गिनती होती थी। शायद यही वजह था कि मधु लिमये ने इस क्षेत्र को अपने राजनीतिक कर्मस्थली के रूप में चुना था।
मधु लिमये डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे से बेहद प्रभावित हुए थे। उन्होंने बाद में इस नारे को अमलीजामा पहनाने का भी प्रयास किया था। आज जब दलों में सत्ता और पद की दौड़ मची है ,सरकार बनाने और गिराने के लिए नेता किसी हद तक जाने के लिए तैयार हैं, तो ऐसे समय में मधु लिमये जी जैसे नेता को याद किया जाना बेहद जरूरी हो जाता है।
यह आश्चर्य कि बात है कि जिस बांका के प्रांगण को इतने बड़े गरीबों ,दलितों पिछड़ों वंचितों के रहनुमाई ने अपना कार्य क्षेत्र बनाया, आज उसी जमीन पर आमलोग तो छोड़िये पढ़े लिखे ग्रेजुएट छात्र और ज्यादातर शिक्षक मधु लिमये के नाम से ना सिर्फ अपरिचित हैं बल्कि कई लोग तो ऐसे भी हैं, जो पूछने पर पहली बार आपके ही मुंह से यह नाम सुनते हैं।
डॉक्टर लोहिया की सहमति से ही मधु लिमये संसदीय दल के नेता बने थे-
मधु लिमये 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के संसदीय दल के नेता थे। डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और जार्ज फर्नांडिस भी इसी दल से लोकसभा के सदस्य हुआ करते थे। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सामाजिक न्याय के शीर्ष पुरुष डॉक्टर लोहिया की सहमति से ही लिमये संसदीय दल के नेता बने थे। सच पुछिए तो यह लोहिया जी की योग्यता और क्षमता का ही पुरस्कार मधु जी को मिला था।
अपनी पार्टी व स्वंय के विचारों पर टिके रहने वाले लिमये सामाजिक न्याय के मसले पर किसी भी तरह से समझौता करने के लिए तैयार नहीं होते थे। मधु लिमये पहली बार 1964 के उपचुनाव में मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए निर्वाचित हुए थे। फिर 1967 में दोबारा चुनाव जीतने के बाद बाद में एक बार फिर 1977 में सांसद बने थे।
मधु लिमये जी जब बांका से चुनाव लड़े और कार्यालय का किराया देने के लिए पैसा नहीं था-
एक कहानी है कि 1980 में वे बांका से चुनाव लड़ रहे थे। संयोगवश बांका एक ऐसा इलाका है जो पहले मुंगेर संसदीय क्षेत्र का हिस्सा हुआ करता था। बाद में बांका एक नया लोकसभा क्षेत्र बना। बांका में एक सज्जन 1964 से ही अपना मकान चुनाव कार्यालय के लिए मधु जी की पार्टी को दिया करते थे।
अभी तक कभी मकन मालिक ने उनसे कोई किराया नहीं मांगा था। लेकिन, जब 1980 में भी वही मकान उनका चुनाव कार्यालय बना, तो इस बार मकान मालिक ने किराया मांग लिया।
कार्यकर्ताओं ने मकान मालिक से जब मधु जी की साधनहीनता की बात कही, तो मकान मालिक ने कहा कि अब तो वे सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्य हैं तो फिर साधनहीनता क्यों ? मधु लिमये जी ने कभी अपने लिए पैसों व साधन को जमा करने के लिए नहीं सोचा था, ऐसे में जब इस बारे में पता चला तो वह इस वाकये से काफी दु:खी हुए थे। यही साधनहीनता इस चुनाव में लिमये जी के लिए बड़ी कारण बनीं और बांका से वो ये चुनाव हार गए।
हारने के बाद चौधरी चरण सिंह ने राज्य सभा का सदस्य बनने का आग्रह किया लेकिन उन्होंने पिछले दरवाजे से सांसद में जाना स्वीकार नहीं किया। मधु लिमये जी की कथनी-करनी में अंतर नहीं था।
राज्यसभा सदस्य रहे राजनीति प्रसाद बताते हैं कि जब मधु लिमये अपना छोटा-सा बस्ता हाथ में लिए लोकसभा सदन में घुसते थे। ज्यों ही मधुजी सदन के दरवाजे से प्रवेश करते, संपूर्ण कक्ष को सांप-सा सूंघ जाता था।
लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुमसिंह की आंखें मधुजी की सीट पर गड़ जाती थीं और सरकारी बेंचों पर बैठे प्रधानमंत्राी सहित सभी मंत्रिगण के चेहरों पर एक अजीब-सी व्यग्रता उभर आती थी। उनका सदन में आना ऐसा होता था जैसे रोम के महाप्रांगण में बब्बर शेर का प्रवेश करना।मधु लिमये एक बेहतरीन सांसद और वक्ता थे। उन्होंने दुनिया को बताया कि संसद में बहस कैसे की जाती है। वो प्रश्न काल और शून्य काल के राजा हुआ करते थे। लोग इंतज़ार करते थे कि देखें ज़ीरो आवर में मधु लिमये अपने पिटारे से क्या निकालेंगे। ज़बरदस्त प्रश्न पूछना और मंत्री के उत्तर पर पूरक सवालों की बौछार से सरकार को ढेर कर देना मधु लिमये के लिए बाएं हाथ का खेल था। मधु लिमये को अगर संसदीय नियमों के ज्ञान का चैंपियन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मधु लिमये जी के बारे में पढ़ने पर मालूम होता है कि अपने जीवन के अंतिम दिनों में वो भारत को जोड़े रखने के लिए अखिल भारतीय पार्टी का होना नितांत आवश्यक मानते थे । एक पार्टी विशेष की राजनीति को लोकतंत्र के लिए खतरा मानते थे। यही वजह था कि उस समय जब कांग्रेस का कोई ठोस विकल्प उभर नहीं रहा था तो वह इस बात को लेकर काफी परेशान रहा करते थे।
मधु लिमये के मुताबिक 'मैंने महसूस किया है कि गांधीजी ने मेरे जीवन को कितनी गहराई से बदल दिया है, उन्होंने मेरे व्यक्तित्व और इच्छा शक्ति को कितनी गहराई से आकार दिया है।’ यह बात मधु लिमये ने तब लिखी थी, जब वह गोवा की जेल में बंद थे। यह उनके गांधीजी से पहली बार करीब से देखने के काफी बाद की घटना है। महात्मा को उन्होंने पहली बार 1942 में करीब से देखा, अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के बंबई सम्मेलन में। लेकिन उसी वक्त गांधीजी सहित कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और मधु लिमये को भूमिगत होना पड़ा। अंडरग्राउंड रहकर वह अच्युत पटवर्धन, उषा मेहता और अरुणा आसफ अली जैसे सहयोगियों के साथ प्रतिरोध आंदोलन चलाते रहे। आखिरकार सितंबर, 1943 में उन्हें एसएम जोशी के साथ गिरफ्तार किया गया। फिर जुलाई 1945 तक वह वर्ली, यरवदा और विसापुर की जेलों में हिरासत में रहे।
अंग्रेजों के शासन के खिलाफ विद्रोह की चिनगारी मधु के मन में काफी पहले से सुलग रही थी। इसलिए 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्हें यह देश को आजाद कराने का बढ़िया अवसर लगा। अगले साल अक्टूबर में उन्होंने विश्व युद्ध के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया। वह लोगों के बीच जाकर युद्ध विरोधी भाषण देने लगे। लेकिन अंग्रेजों को यह कहां से बर्दाश्त होता, उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद करीब एक साल के लिए मधु को जेल में रखा गया, जहां से वह 1941 में रिहा हुए।
उन्हें गोवा मुक्ति आंदोलन के लिए भी याद किया जाता है। मधु ने 1950 के दशक में इसमें शिरकत की, जिसे उनके नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1946 में शुरू किया था। 1955 में एक बड़े सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए वह गोवा में दाखिल हुए। पुर्तगाली पुलिस ने सत्याग्रहियों पर हिंसा की। सत्याग्रहियों के साथ मधु लिमये की बुरी तरह पिटाई की। इसी साल दिसंबर में पुर्तगाली सैन्य न्यायाधिकरण ने उन्हें 12 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई। अनोखी बात यह थी कि मधु लिमये ने न तो कोई बचाव पेश किया और न ही भारी सजा के खिलाफ अपील की। गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान उन्होंने पुर्तगाली कैद में 19 महीने से अधिक समय बिताया। कैद के दौरान उन्होंने जेल डायरी के रूप में एक पुस्तक 'गोवा लिबरेशन मूवमेंट और मधु लिमये’ लिखी, जो 1996 में गोवा आंदोलन के शुभारंभ की स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित हुई। अब उसका दोबारा प्रकाशन किया गया है।
1957 में पुर्तगाली हिरासत से छूटने के बाद भी मधु लिमये ने गोवा की मुक्ति के लिए जनता को जुटाना जारी रखा। उन्होंने भारत सरकार से इस दिशा में ठोस कदम उठाने का आग्रह किया। जन सत्याग्रह के बाद भारत सरकार गोवा में सैन्य कार्रवाई करने के लिए मजबूर हुई और गोवा पुर्तगाली शासन से मुक्त हुआ। दिसंबर 1961 में गोवा आजाद होकर भारत का अभिन्न अंग बना।
राजनीति प्रसाद कहते हैं कि-' मधु लिमये देश के लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के करिश्माई नेता थे और अपनी विचारधारा के साथ उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया।' वहीं गांधीवादी पत्रकार प्रसून लतांत बताते हैं राजनीति में जिन नेताओं ने गांधी दर्शन को पूरी तरह से आत्मसात किया उसमें मधु लिये का प्रमुख नाम है। उनके मुताबिक उनपर महात्मा गांधी के शांति और अहिंसा के दर्शन का बहुत प्रभाव था। 1 मई 1922 को महाराष्ट्र के पूना में जन्म लेने वाले मधु लिमये ने 1937 में यहीं के फर्ग्युसन कॉलेज में उच्च शिक्षा के लिए दाखिला लिया। तभी से वह छात्र आंदोलनों में शामिल होने लगे। वह 1964 से 1979 तक चार बार लोकसभा के लिए चुने गए।
इमरजेंसी के दौरान उन्हें जुलाई 1975 से फरवरी 1977 तक जेल में रखा गया। तब उन्होंने अपने युवा साथी शरद यादव के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा संवैधानिक प्रावधानों के दुरुपयोग के ज़रिये अपने और लोकसभा के कार्यकाल के अनैतिक विस्तार के विरोध में पांचवीं लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। मधु लिमये ने जेपी आंदोलन के दौरान और बाद में एकजुट विपक्षी पार्टी (जनता पार्टी) बनाने के प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें मोरारजी सरकार में मंत्री पद देने का प्रस्ताव भी किया गया, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। बाद में 1 मई, 1977 को उनके 55 वें जन्मदिन पर उन्हें जनता पार्टी का महासचिव चुना गया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके सराहनीय योगदान के लिए मधु लिमये को भारत सरकार की ओर से पेंशन की पेशकश की गई, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। उन्होंने संसद के पूर्व सदस्यों को दी जाने वाली पेंशन को भी स्वीकार नहीं किया। 1982 में वह सक्रिय राजनीति से अलग हुए और 72 वर्ष की आयु में 8 जनवरी, 1995 मधुलिमये का निधन हो गया। राज्य सभा सदस्य रहे राजनीति प्रसाद पिछले 30 बर्षों से पटना के अनुग्रह नारायण सिन्हा शोध संस्थान में उनकी जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर आयोजन को उनकी विचारधारा, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रसार का काम किया जा रहा है।
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